हिंदू धर्म के अनुसार इस पूरे ब्राह्मण को ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा चलाया जाता है। ब्रह्मा, विष्णु और महेश इस संसार की रक्षा करते हैं और इस संसार पर कोई भी विपित्त नहीं आने देते हैं। लेकिन एक पौराणिक कथा के अनुसार वृत्रासुर नामक राक्षस से इस संसार की रक्षा करने में यह तीनों त्रिदेव भी असमर्थ थे। तब इस संसार को बचाने के लिए महर्षि दधीचि सामने आए थे और दधीचि ने अपने प्राण देकर देव लोक को वृत्रासुर से बचाया था। आखिर कौन थे महर्षि दधीचि और किसी तरह से इन्होंने देवताओं की रक्षा वृत्रासुर से की थी इसके साथ एक रोचक कथा जुड़ी हुआ है और यह कथा इस तरह है।
भागवत पुराण के अनुसार दधीचि ऋषि अथर्वन और उनकी पत्नी चित्ती के पुत्र थे। अथर्वन भी एक ऋषि ही थे और इनके द्वारा ही अथर्ववेद लिखा गया था। महर्षि दधीचि शिव के भक्त थे और सदा शिव की तपस्या में लीन रहते थे। ऋषि दधीचि की पत्नी का नाम स्वार्चा था। जबकि इनके पुत्र का नाम पिप्पलाद था। इनके पुत्र द्वारा Praśna Upanishad लिखा गया है। महर्षि दधीचि का जिक्र हमें भागवत पुराण, श्रीमद देवी भागवतम और ऋग्वेद के विभिन्न ऋचाओं में मिलता है। महर्षि दधीचि का जन्म भाद्रपद शुक्ल पक्ष की अष्टमी को हुआ था और हर साल इस दिन पूरे देश में दधीच जंयती मनाई जाती है।
कहा जाता है कि वृत्रासुर बेहद ही ताकतवर राक्षस हुआ करता था। वृत्रासुर ने एक बार देव लोक पर आक्रमाण कर दिया था और देव लोक को अपने कब्जे में ले लिया था। वृत्रासुर का सामना कई सारे देवताओं ने किया लेकिन कोई भी इसे हार ना सका। दरअसल वृत्रासुर का शरीर काफी ताकतवर था और देवता द्वारा जो भी दिव्य अस्त्रों उसपर छोड़े जाते थे, वो उसके शरीर से टकराकर टूट जाते थे। वृत्रासुर पर दिव्य अस्त्रों का कोई असर ना होता देख, इंद्र देव त्रिदेव से मदद मांगने के लिए उनके पास गए। त्रिदेव से मिलाकर इंद्र ने उन्हें वृत्रासुर के बारे में बताया और उनसे सहायता मांगी।
त्रिदेव ने इंद्र को बताया की वृत्रासुर का शरीर इतना मजबूत है कि उसको इस दुनिया का कोई भी अस्त्र नहीं मार सकता है और इसका वध करना नामुमकिन है। त्रिदेव की बात सुनकर इंद्र काफी निराश हो गए। तभी शिव जी ने इंद्र को महर्षि दधीचि के बारे में बताया। शिव जी ने इंद्र से कहा कि महर्षि दधीचि तुम्हारी मदद कर सकते हैं और वृत्रासुर को युद्ध में हरा सकते हैं।
शिव जी ने इंद्र से कहा महर्षि दधीचि ने तपस्या कर अपनी हड्डियों को बेहद ही मजबूत बना रखा है और उनकी हड्डियों से मजूबत अस्त्र और कोई भी नहीं है। अगर दधीचि की हड्डियों से अस्त्र बनाकर उसे वृत्रासुर पर छोड़ा जाए तो वृत्रासुर का वध हो जाएगा। शिव जी की सलाह मानते हुए इंद्र देव अन्य देवताओं के साथ धरती लोक आ गए और यहां आकर उन्होंने ऋषि दधीचि से मुलाकात की।
महर्षि दधीचि से मिलकर इंद्र देव ने उन्हें वृत्रासुर द्वारा किए गए अत्याचारों के बारे में बताया और दधीचि से उनकी हड्डियों का दान मांग लिया। महर्षि दधीचि जानते थे कि उनकी हड्डियां इतनी मजबूत है कि उनका प्रयोग कर वृत्रासुर को मारा जा सकता है। ऋषि दधीचि ने इंद्र देव की बात सुनते ही अपने प्राण का त्याग कर दिया ताकि उनकी हड्डियों से अस्त्र बनाकर उससे वृत्रासु का वध किया जाए सके।
महर्षि दधीचि के प्राण त्यागने के बाद उनकी हड्डियों को इंद्र देव ने देव शिल्पी विश्वकर्मा को सौंप दिया। जिससे देव शिल्पी विश्वकर्मा ने एक अस्त्र का निर्माण किया। जिसका नाम वज्र रखा गया। इस अस्त्र को हासिल करने के बाद इंद्र देव ने वृत्रासुर से दोबारा युद्ध किया। इस बार युद्ध में इन्द्र ने महर्षि दधीचि की हड्डियों वाला अस्त्र वृत्रासुर पर छोड़ा और इस वज्र का प्रहार होते ही वृत्रासुर का शरीर रेत की तरह बिखर गया।
वृत्रासुर का वध करने के साथ ही वापस से देवता देवलोक पर अपना अधिकार जमा सके और इस तरह से इस संसार की रक्षा महर्षि दधीचि की मदद से की जा सकी।
महर्षि दधीचि ने जिस तरह से बिना अपने प्राण की चिंता किए इस संसार को बचाया उसके लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। ऋषि दधीचि की याद में ही हर साल इनके जन्म दिवस को धूमधाम से मनाया जाता है। इतना ही नहीं भारत सरकार द्वारा दिया जाने वाला परमवीर चक्र इनसे ही प्रेरित है और इस चक्र को उसे दिया जाता है जो ऋषि दधीचि की तरह सच्चे मन से देश की रक्षा करता है।